सोमवार, २१ जून, २०२१

तोचि एक परमगुरु


वृक्षासम देऊ  छाया , धरिणीसम अन्न  पोटी 

सरितेसम  शमवू  तृष्णा , ना  मिरवू  प्रतिष्ठा  खोटी 


दर्यासम  होऊ  दिलदार , निश्चयाचा  बनू  मेरू 

वाऱ्यासम  होऊ  वाहक , वाटप  ज्ञानाचे  करू 


पाषाणासम   होऊ  अभेद्य  , पात्यापरी  विनम्र  कधी 

नभासम  कधी  देऊ  आसरा , विठोबाची  लेकुरे कधी 


पुष्पासम  होऊ  प्रसन्न , घेऊ  फळांचे   माधुर्य 

मातीसम  होऊ  सुगंधी , असोत  नकोशी  कार्य 


वनराईचे  गांभीर्य घेऊ , किलबिल  घेऊ  पक्षांची 

वादळासम  होऊनि  झुंझार , शांतता  घेऊ  माळाची 


वेलीसम  घट्ट  बिलगू , रेतिसम  निसटू  कधी 

पालवीसम  नव्याने  बहरू , पानगळीपरी  घेऊ  समाधी 


असंख्य  हाती  देतो , ना  ठेवता  हातचे 

नतमस्तक  होऊनि  चरणी , आपणही  गिरवायचे 


ना  मागता  शिकवतो , जीवन  कैसे  जगायचे 

तोचि  एक  परमगुरु , निसर्ग  त्यास  म्हणायचे 


- अंकुश 

गुरुवार, १० जून, २०२१

उसंत ...

"जास्तीची  मेजॉरिटी " सहज  परवा  म्हणून  गेलो 

गल्लीत  बालपणीच्या,  फेर-फटका  मारून  आलो 


चखायची  हि  पद्धत , सगळीकडे  सारखी  होती 

तीनात  एक  अन पाचात  तीन , मोज-मापे  ठरली  होती 


शब्द  काय  आणि  अर्थ  काय , फिकीर  तेंव्हा  फार  नव्हती 

"आय  बिमा  सीमा  बिमा " वर , टाळ्या  सगळी  पिटत  होती 


विषामृत  अन  पळापळी , कधी  लंगडी  अन  जोड-साखळी 

दमून-भागून  घामट  होता , time-please ची  रीत  आगळी 


गोट्या  असे  नाव  मुलाचे  अन  खेळ  नेमबाजीचा 

ओबड-धाबड  फरशा  रचून , डाव  रंगे  लगोरीचा 


उन्हात  खेळण्यास  आई  ओरडे  , मोर्चा  वळे  घराकडे 

Carrom आणि  पत्त्यांचा  मग , डावांमागून  डाव  झडे  


लावून  सायकल  स्टॅण्डवर , चाक  होई  विकेट 

माझी  बॅट  पहिली  batting , असे  चाले  क्रिकेट 


half pitch च्या  खेळाडूंना  , demand जरा  जास्त  होती 

एक  टप्पा  out ची,  मजा  काही  औरच  होती 


डाव  खेळता  रडीचा  कोणी , खेळ  जरा  थांबे 

दिवेलागणीच्या  पुढे  मग , थोडा  वेळ  लांबे 


डोळस  कोशिंबीर  खायला  अन  आंधळी  खेळायला 

अंधाराची  घेऊन  कड  लपंडाव  सुरु  झाला 


नव्हती  कसली  घाई , ना  कसली  खंत 

अनंत  होता  वेळ  आणि  अमर्याद  उसंत 


सोडली होडी कागदाची , पाण्यासोबत गेली वाहून 

हवीहवीशी  उसंत , तिथेच गेली राहून 


असून  सारे  अवतीभवती , काहीतरी  हरवलंय 

उसंतच  असेल  कदाचित , जे  मी  गमवलंय 


- अंकुश  

माधुरी

 परवा चक्क स्वप्नात माधुरी आली,  गोड लाजत हसत “साजन”च म्हणाली  पहाटेचं स्वप्न, मन शहारून गेलं खसखसून साबणाने, अंग धुवून काढलं नविन शर्टची घड...